Friday 31 July 2009

टीशटॆ का खेल


लड़की ने उँगली से लटों को कान के पीछे किया और लड़के से बात करने लगी। पिछले १५ मिनट ने वह छह बार ऐसा कर चुकी थी। लड़की जितनी बार भी ऐसा करती थी लड़के को और मादक लगने लगती थी। लड़का बात करते-करते नजर बचा कर उसकी टीशटॆ और जींस के बीच की मांसल जगह को देख रहा था। लड़की की कमर पर चुचुहा रहीं पसीने की बूँदे लड़के के मन में झुरझुरी पैदा कर रही थीं। लड़की की नाभि में एक चाँदी का छल्ला फँसा था। यह काम कुछ दिन पहले लड़के ने अपने खचॆ पर करवाया था। इस छोटे से काम के लिए उसने अपने जोड़े हुए रुपयों में से तीन हजार खचॆ कर दिए थे। पहले तो लड़की इसके लिए तैयार नहीं थी पर लड़के काफी समझाने के बाद मान गई। लड़की जब नाभि में चाँदी का छल्ला पहन कर पालॆर से बाहर निकली तो लड़के की आखों में अजीब सी चमक कौंध गई। असल में लड़की ने अपनी लंबी टीशटॆ मोड़ कर ऊँची कर ली थी जिससे नाभि का छल्ला दिख सके। फिर दोनों जनपथ गए। लड़के ने लड़की के लिए तीन टीशटॆ खरीदीं। शाटॆ टीशटॆ यानी फैशन के अनुकूल। कूल...।असल में यह खरीदारी कुछ ऐसे हुई। दोनों जनपथ पहुँचे। चलते-चलते लड़के ने धीरे से लड़की की कमर पर अपना हाथ लपेट दिया। ऐसा पहली बार हुआ था पर लड़की शरमाई नहीं। नाभि में छल्ला पहनने के बाद उसके अंदर कुछ बदल गया था। दोनों टहलते रहे। लोग उन्हें घूरते रहे। धीरे-धीरे वे बेपरवाह हो गए। तभी लड़की के कुछ दोस्त मिल गए। लड़की उनसे बतियाने लगी, लड़का बोर होने लगा। लड़की को बताए बगैर लड़का एक दुकान में घुस गया। उसने तीन टीशटॆ खरीदीं। बाहर आया तो लड़की के दोस्त जा चुके थे उसकी नजरें लड़के को तलाश रहीं थीं। लड़का, लड़की के पास गया और उसके हाथ में एक पैकेट थमा दिया। इसमें तुम्हारे लिए दो टीशटॆ हैं घर जा कर देखना।लड़की घर पहुँची और उस पैकेट के साथ अपने कमरे में बंद हो गई। उसने टीशटॆ निकालीं। एक टीशटॆ पर आई और दूसरी पर यू लिखा। लड़की अचानक खिल उठी। चेहरे पर लटक रही बालों की लट उसने उँगली से पीछे की। आइने में खुद को देखा। उसका चेहरा सुखॆ हो रहा था। मन हुआ कि दोनों हथेलियों से अपना चेहरा ढक ले लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। वह लड़िकयों की इस अदा को बदलना चाहती थी। बोल्ड बनना चाहती थी। उसने लड़के को एसएमएस किया। तीसरी टीशटॆ कब मिलेगी? जवाब आया-कल। लड़की ने फिर पूछा कहाँ? सुबह छह बजे बस स्टैंड पर मिलो, दोस्त के फामॆ हाउस चलते हैं।फामॆ हाउस की घड़ी दोपहर के तीन बजा रही है। लड़का बेड पर बेसुध सो रहा है। लड़की ने कमरे को सिगरेट के धुएँ से भर दिया है। सामने लगे आइने में लड़की खुद को देखने की कोशिश कर रही है पर धुआँ घना था। छुएँ एक गुबार आइने के सामने से हटता है। आइने में लड़की का अक्स उभरता है। उसकी टीशटॆ पर लिखा है लव। तभी लड़के के फोन पर एसएमएस आता है। लड़की फोन उठाती है। इन बा‍क्स खुलता है। टीशटॆ का खेल सफल रहा? लड़के का कोई दोस्त पूछ रहा है। लड़की धम्म से बेड पर गिर जाती है। कुछ देर बाद लड़की अपने फोन में वूमेन हेल्पलाइन का नम्बर ढूंढ रही है। लड़की ने नंबर मिलाया पर घंटी जाने से पहले ही फोन काट दिया। वह सोच में है यह रेप है या उसकी बोल्डनेस...............आप बताइए.........।

Wednesday 29 July 2009

ब्लॉग पर एक स्पॉट ‘ईश्वर’ के नाम


मनुष्य की ईश्वर तक की यात्रा मिथकीय चेतना से होकर गुजरती है। पल-पल बदलती दुनिया ने इस चेतना का निर्माण करने वाले तत्वों को उलट-पलट दिया है। जहिर है नई दुनिया में जन्म लेने वाले हमारे नेटिजियन की चेतना वैसी नहीं है जसी पिछली पीढ़ी के लोगों की थी। नई पीढ़ी की इसी चेतना को पकड़ने का प्रयास करते सौरभ श्रीवास्तव पिछले दिनों खबरिया चैनल पर एक समाचार दिखा। बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन का ईश्वर से संवाद। वाकया कुछ इस तरह हुआ-अमिताभ अपना ब्लॉग लिख रहे थे। साथ ही कोई चैटिंग साइट भी खुली हुई थी। अचानक एक पॉपअप आया। बिग बी ने पूछा आप कौन हैं? जवाब आया-ईश्वर। तुरंत विचार आया जरूर यह कोई छद्म है लेकिन यह विचार उतना प्रभावी नहीं था जितना कि चैटिंग पर ‘ईश्वर’ का मिलना। यदि ऐसा न होता तो संवाद वहीं खत्म हो जाता पर संवाद जारी रहा। बिग बी सवाल पूछते रहे और ‘ईश्वर’ जवाब देते रहे। सवाल भी ऐसे जो प्रत्याशित तौर पर ईश्वर से ही किए जा सकते हैं। जैसे-अच्छे व्यक्ति को हमेशा कष्ट क्यों होता है? इन कष्टों का निवारण क्या है? आदि-आदि। जवाब भी ऐसे जो ईश्वर ही दे सकते हैं। यानी एक अप्रत्याशित घटना का प्रत्याशित विस्तार। इस पूरी घटना को कोई भी समझदार आदमी महज फंतासी या प्रचार का शगल मान कर आगे बढ़ सकता है। खबरिया चैनल पर यह समाचार देखने के बाद ज्यादातर लोगों ने यही किया भी होगा। या तो चैनल बदल दिया होगा या बूढ़े होते बिग-बी का मजक उड़ाया होगा, लेकिन क्या बात यहीं खत्म हो गई? नहीं। अगले दिन खबर चर्चा में रही। मजकिया लहजे में ही सही लोगों ने इसका जिक्र एक-दूसरे से किया और बात फैलती गई। ईश्वर अपने मकसद में सफल रहे। वह यही तो चाहते थे। साइबर संसार में दिन-रात खोए रहने वाले लोगों को उनकी याद आए। आम जनता को ईश्वर की याद न आना उन्हें अपने अस्तित्व के लिए चुनौती जान पड़ता है। उन्हें याद दिलाना था कि हम हैं। संसार में ही नहीं साइबर संसार में भी हैं। सो, उन्होंने एक भक्त को चुना, जो अपने तमाम साथियों को बताए कि ईश्वर ने नया अवतार लिया है। अब चूँकि आम आदमी हमेशा खास आदमी की बात सुनता है इसलिए ईश्वर ने सेलेब्रिटी को चुना। बिग बी कहेंगे तो लोग सुनेंगे और तरजीह भी देंगे। ईश्वर ने इस तरह से कई लोगों का कल्याण किया। उस खबरिया चैनल के मालिक का भी। अरे भाई उसके चैनल की टीआरपी जो बढ़ा दी। चैनल ने खबर को खूब खींचा। खूब कौतूहल पैदा किया। साइबर स्पेस में यह ईश्वर का मनोरंजक अवतार था। खैर, बात खत्म हुई। टीवी बंद करके मैं सो गया। अगली सुबह उठा और टहलने निकल गया। पार्क में ज्यादातर चेहरे जने-पहचाने। वही घरेलू महिलाएँ, रिटायर बुजुर्ग और कुछ खिलाड़ीनुमा युवा। तभी २५-२६ वर्ष का एक युवक बगल से गुजरा। एडीडास का ट्रैक सूट, कलाई में रिस्ट बैण्ड, कान में आईपॉड के साथ जॉगिंग शूज से लैस। मुझे लगा कॉलोनी में नया आया होगा। पार्क के दो चक्कर लगाकर वह युवक बेंच पर बैठकर हाँफने लगा। मैं पास से गुजरा तो पूछा-कॉलोनी में नए हो? नहीं-जवाब मिला। पहले तो नहीं देखा? मैंने अगला सवाल किया। आप लोग देखना ही नहीं चाहते हैं तो कैसे देखेंगे? मुङो अटपटा लगा पर संवाद जरी रखने के लिए मैने सवाल दागा, क्या नाम है तुम्हारा? जवाब मिला-ईश्वर। पूरा नाम? क्या ईश्वर अपने आप में अपूर्ण है? सवाल के जवाब में उसने सवाल किया। मैं सकपका गया। बात खत्म कर आगे बढ़ना बेहतर लगा। मैंने लगभग टालने वाले अंदाज में कहा, ‘मैं सामने वाले घर में रहता हूँ। कभी चाय पर आओ।’ करीब दस बजे घर की घंटी बजी। ईश्वर आया था। मैंने उसे ड्रॉइंग रूम में बैठा दिया और परदे खींच दिए। ताकि वह घर के भीतर न झाँक सके। हम अक्सर ऐसा करते हैं बिना इसकी परवाह किए कि सामने वाला क्या सोचेगा। खैर! मैं चाय लेकर पहुँचा। तुम्हारा मकान नंबर क्या है- मैंने सवाल किया। ‘मैं किसी मकान में नहीं रहता। रह भी नहीं सकता। मैं तो सर्वव्यापी हूँ।’ ईश्वर ने जवाब दिया। कौतूहल बढ़ने लगा। मैं मजाक के मूड में आ गया-हे ईश्वर! आपका मुकुट और आभूषण कहाँ है। तुम भी तो धोती की जगह जींस और कुर्ते की जगह टी शर्ट पहने हो। ‘क्या आप लोग चाहते हैं ईश्वर हमेशा पुरातनपंथी रहे, जसे वह सदियों से है?’ मुझे लगा मैंने ईश्वर की दुखती रग पर हाथ रख दिया। उसने बोलना जारी रखा-‘दुनियावालों ने कितनी तरक्की कर ली। पहिए के अविष्कार से शुरू हुआ सिलसिला नैनो तक पहुँच गया है। आगे कहाँ तक जएगा, पता नहीं। मैंने बीच में टोका पर आप तो ईश्वर हैं आपको पता नहीं? ईश्वर बिफर गए। हाँ, नहीं पता रोज तो बदलती रहती है आप लोगों की दुनिया। कोई कितना ध्यान रखे और फिर यह साइबर संसार। दुनिया का हर कोना एक-दूसरे से जुड़ा है। हर आदमी अपने दोस्तों के साथ व्यस्त है। किसी को मेरे लिए फुर्सत ही नहीं। हाँ, धर्म-कर्म की साइटें हैं। पर ऐसे लोगों को आप जसे हाईटेक लोगों ने एक कोना दे दिया है। पड़े रहो और चलाते रहो अपना धंधा। आप लोग खुश होते हैं तो दोस्तों को ई-मेल करके उन्हें साझेदार बना लेते हैं। दुखी हुए तो चैट कर गम हल्का कर लिया। ज्ञान के लिए मेरी तपस्या करने के बजय गूगल खोल लेते हैं। असल जिन्दगी में तो मुझे कभी-कभार याद भी कर लेते हैं पर साइबर संसार में तो मेरा अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। मुझसे बड़े चमत्कार तो गूगल कर रहा है। मेरा सर्वव्यापी होना खतरे में है। सर्वव्यापी न रहा तो ईश्वर भी न रहूँगा। पर आप लोग चिंता न करें मैं यह लड़ाई इतनी आसानी से हारने वाला नहीं हूँ। साइबर संसार में खुद को स्थापित करने के लिए मैंने कम्प्यूटर सीखना शुरू कर दिया है। जल्द ही इंटरनेट पर मेरा कब्जा होगा।’ मैं हतप्रभ ईश्वर को सुन रहा था। ईश्वर ने मुझे हिलाया। ‘कहाँ खो गए? मेरे कम्प्यूटर क्लासेस का वक्त हो रहा है। चलता हूँ।’ कह कर ईश्वर चले गए। एक दिन मैं नेट सर्फिग कर रहा था। याहू चैट पर अचानक एक पॉप अप खुला। मैंने पूछा कौन? पहचाना नहीं, ईश्वर!
हिन्दुस्तान के लखनऊ संस्करण में २७-०७-२००९ को प्रकाशित (साभार)

Tuesday 28 July 2009

प्रदीप सौरभ का उपन्यास


बहुत दिनों बाद हिन्दी वालों के पास एक अलग टेस्ट का हिन्दी उपन्यास आ रहा है। नाम है ‘मुन्नी मोबाइल’। लेखक हैं वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सौरभ। इस उपन्यास में लंदन-शिकागो से लेकर बिहार-यूपी, दिल्ली-एनसीआर, पत्रकारिता-राजनीति, समाज-दंगा, नक्सलवाद-आंदोलन, कालगर्ल-कालसेंटर सब कुछ है। जिन लोगों ने इस उपन्यास के कच्चे रूप (प्रिंट होने से पहले) को पढ़ा है, उनका मानना है कि इस उपन्यास में 'हिंदी बेस्ट सेलर' बनने की संभावना है। उपन्यास तो इस महीने के आखिर में छपकर बाजार में आएगा लेकिन भड़ास4मीडिया उपन्यास के प्रकाशक वाणी प्रकाशन के सौजन्य से एक हिस्सा, खासकर वो हिस्सा जो पत्रकारिता से संबंधित है, यहां प्रकाशित कर रहा है। उपन्यास के इस हिस्से में गुजरात दंगों के दौरान मीडिया के रोल और मीडिया की आंतरिक बुनावट पर काफी कुछ कहा-लिखा गया है। तो आइए, ‘मुन्नी मोबाइल’ के एक अंश को पढ़ें-

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Sunday 26 July 2009

उदास कमरा


अगर वे चीजें जो खामोश रहती हैं बोलने लगें जैसे घर का सामान, यातायात के साधन, खाने पीने की चीजें और ईश्वर तो हमारी जिंदगी कैसी होगी। इसी फंतासी पर पेश हैं कुछ कहानियाँ। हाँ ये कहानियाँ सिफॆ फंतासी नहीं हैं इनमें जिंदगी और हमारे विश्वासों आदि का विश्लेषण भी है----

उदास कमरा

कमरा तो कमरा ही रहता है कभी घर नहीं बन सकता। एक रात थक हार कर घर लौटा। मुँह-हाँथ धो कर टीवी खोल लिया। खाना बाहर से ही खा कर आया था। टीवी पर खबर चल रही थी। एक लड़की ने अकेलेपन से ऊब कर आत्महत्या कर ली। इस दौड़ते भागते शहर में अकेलापन। टीवी म्यूट कर सोंचने लगा। आँखें छत पर टंगी थीं। कमरे ने कहा, अकेलापन तुम्हें क्यों लगेगा। कभी सेमिनार में, कभी आफिस में, कभी महिलाओं के आगोश में। कभी सोचा है जिन शहरों की सड़कों पर तिल रखने की जगह नहीं होती उन शहरों में कमरे कितने अकेले होते हैं। सुनते-सुनते सो गया। आँख खुली तो जान पाया कि मैं तो कल कमरे पर गया ही नहीं। पीने के बाद दोस्त के घर पर ही सो गया। खैर अपने कमरे पर जाने के लिए दोस्त को बाय बोला। बस से लाजपत नगर पहुँचा। कमरे वाली गली में मुड़ा वो मकान तो था ही नहीं जिसके एक कमरे में मैं रहा करता था। सुबह के छः बज रहे थे। दिमाग भन्ना रहा था। दारू की खुमारी उतरी नहीं थी। शायद रास्ता भूल गया हूँ। चौराहे पर पहुँचा चाय ली और सिगरेट सुलगा ली। बेंच पर पड़ा पेपर उठाया। अंदर के पन्ने पर खबर थी।........................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................ लाजपत नगर में अवैध कालोनी गिराई गई, रातोंरात मलबा साफ

Wednesday 22 July 2009




उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी,
गुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िंदगी के टुकड़े।
हथौड़ा अब भी चलता है,
उदास निहाई पर
हल अब भी चलता है,
चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता,
प्रश्न नाचता है।
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी।
कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नज़रों की कसम खाकर
हाथ पर पड़े गड्ढों की कसम खाकर।
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे साथी तब तक
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूंघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति
जब तक युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मजबूर हैं
कि दफ्तर के बाबू जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की जरूरत है।
जब तक बंदूक न हुई,तब तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगेकि अब तक लड़ क्यों नहीं
हम लड़ेंगेअपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी।